एक पाठक के रूप में यदि किसी विधा ने हमें सबसे अधिक बांधा है तो वह लघुकथा है।कारण बहुत सरल और सर्वमान्य है।समय की लघुता में भावों के विस्तृत व्योम की थाह पा लेने की उत्कंठा।और जो कथा अपनी आकृति की लघुता में हमारे पाठक मन को अपनी भाव गंगा की अतल गहराई का आभास दिलाकर हमारे मनोमस्तिष्क पर एक अटल प्रभाव छोड़ जाती है, वही हमारी पसंदीदा रचना बन जाती है। इस आधार पर एक पाठक को क्या चाहिए? संदेशवाहक कथ्य के साथ एक सुगठित कथानक , ग़ैर उबाऊ शैली और सुगम एवं मोहक शिल्प! मेरा पाठक मन इन्ही मान्यताओं पर किसी लघुकथा का मूल्यांकन करता है।बाक़ी विश्लेषण की कलाओं की दुरुहता में भटकने का यदि समय होता तो फिर लघुकथाएँ ही क्यों पढ़ता!
“ लघुता ते प्रभुता मिले, प्रभुता ते प्रभु दूरी।
चींटी शक्कर ले चली, हाथी के सिर धुरी।”
लघुकथा के पात्र उसके कथानक के शिल्प में ऐसे गुँथे होते हैं कि वह पाठक से सीधे बतियाते हैं। कहन की शैली इतनी क्षिप्र होती है कि सहसा कोई पात्र कूदकर कोई ऐसी बात पाठक को समझा जाता है कि पाठक का दिमाग़ झनझना जाता है और यह झनझनाहट दीर्घ काल तक अपना प्रभाव बनाए रखती है। बतौर पाठक हमें लघुकथाओं के आकार का साढ़े चार सौ से लेकर पाँच सौ शब्दों की सीमा के अंदर ही होना उसके लघुकथा होने की सार्थकता को साधते दिखता है।न्यूनतम सीमा तो एक वाक्य से लेकर एक दो वैसे शब्द भी हो सकती है जो कोई मारक प्रभाव छोड़ जाय।जैसे, ‘ब्रुटस, तुम!’ या ‘मैं तो ठहर गया, भला तू कब ठहरेगा!’ या ‘बेटा, क्या बिगाड़ के दर से ईमान की बात नहीं कहोगे!’ आदि आदि। तो सीधे पते की बात पर आयें तो सबसे पहले कथानक और उसका मारक प्रभाव, फिर शिल्प, तब शैली और अंत में शीर्षक। एक अत्यंत आम पाठक की मेरी निगाहें बस इतना ही तलाशती है लघुकथाओं में। हाँ यदि भाव प्रवाह की प्रांजलता को ऊर्जा और संजीदगी की ताजगी भरती भाव प्रवण भाषा और शास्त्रीयता का कोई मणि-कांचन संयोग हो उसमें तो फिर कहना ही क्या! मुझे उसके अंदर छिपे किसी भी दुरूह संदेश और दार्शनिकता से भी कोई मनमुटाव नहीं, यदि वह स्वयं पात्रों की चाल-ढाल, बोली-चाली या भाव भंगिमा में रच बसकर सीधे मेरे पाठक मन को छू ले। लघुकथाओं से ऐसे तो वैदिक साहित्य, औपनिषदिक कृतियाँ, पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथायें, महाभारत , रामायण, बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य आदि आदि पटे पड़े हैं, किंतु इधर पिछले कुछ दशकों से इस विधा के पुनरावलोकन की प्रवृत्ति कुछ अधिक तीव्र हो गई है मानों यह विधा अब अपने पुनर्जागरण काल में पहुँच गई है। इसमें कुछ योगदान तो बदलती जीवन शैली का भी प्रतीत होता है जहां आम जन को अब धरती की चाल तेज लगने लगी है। चौबीस घंटे कम पड़ने लगे हैं। वह चाहता है कि धरती भी अपने घूर्णन गति के लघुकथा संस्करण को प्राप्त हो ताकि उसे समय कुछ और मिले और वह समय की लघुता के गागर में अपने जीवन की ज़रूरतों का सागर भर ले।अब उसके पास दीर्घ गाथाओं, उपन्यासों और बड़ी कहानियों को पढ़ने का वक़्त नहीं।थोड़े समय में ज्यादा से ज्यादा संवाद कर लेना चाहता है वह! लघुकथायें आज के आम जन की इस आवश्यकता पर एक कारगर विधा के रूप में खरी और खड़ी प्रतीत नज़र आ रही है। इन समस्त तथ्यों का संबोध कराती एक सार्थक कृति अभी पिछले विश्व पुस्तक मेले में दिल्ली में और फिर बाद में पटना के बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के मंच पर लोकार्पित हुई। इसका संपादन किया है लघुकथा को समर्पित साहित्यकार विभा रानी श्रीवास्तव ने। छब्बीस समर्थ रचनाकारों की पाँच-पाँच प्रतिनिधि लघुकथाओं के इस संकलन का नाम है - ‘ सम्यक् सम्बोधि’। ऐसे तो संबोधि शब्द का अर्थ ही होता है सम्यक् बोध किंतु उसके पीछे एक बार फिर से सम्यक् जोड़ने पर हमें बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग में सम्यक् शब्द की याद आती है जो सकारण है। सम्यक् शब्द भावों की संपूर्णता और सांगोपांगता का आभास दिलाता है। ऐसे बताते चलें कि लघुकथा पाठक के रूप में मेरी लघुकथाएँ भी अपने अष्टांगिक तत्वों की सम्यकता में ही अपने स्वरूप की संपूर्णता को प्राप्त करती हैं। ये आठ अंग हैं, सम्यक् कथ्य, सम्यक् कथानक, सम्यक् शिल्प, सम्यक् शैली, सम्यक् भाषा, सम्यक् आकार, सम्यक् संदेश और सम्यक् शीर्षक। अब सम्यक् सम्बोधि की समीक्षा भी इन अष्टांगों की सम्यकता की कसौटी पर कसा जाना अपेक्षित होगा।
अनिल मकरिया के ‘अव्यय बीज’ का पाठक भी अनियंत्रित हाव-भाव से मानव के प्रति ‘उसकी ‘ खीझ से खीझ उठता है जब ‘वह’ ‘कहीं से’ उठते मनुष्य के शोर से विचलित होकर ग्रह को फिर से वर्तमान की जीवन रहित स्थिति में ले आता है। कितना कमजोर और कायर है ‘वह’! विरूपताओं के समक्ष उसके घुटने टेकने में लघुकथा के संदेश पक्ष की साँसें अटक गई सी लगती हैं। ‘ट्रॉली प्रॉब्लम’ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में उभरते जज़्बातों का और फिर उन जज़्बातों के चश्में से मानवीय संवेदनाओं को परखने का सुंदर चित्रण है। ‘दशरथ जल’ इस धारणा को बल देता है कि अब चौथा विश्वयुद्ध पानी के लिए ही होगा। ‘अहलकार’ में साहब के नहले से नवाचार पर कुली का दहला सा दहलाता व्यवहार है।पर्यावरण के प्रदूषण की पोल खोलते ‘ बोधि वृक्ष’ के सुगठित शिल्प को शैली की जटिलता छूती नज़र आ रही है।
ऋचा वर्मा का ‘वायरल वीडियो’ मेडिकल परीक्षा के नीट घोटाले का पर्दाफ़ाश है। आज का सोशल मीडिया सशक्तिकरण का एक मज़बूत टूल है। समकालीन सामाजिक सोच की विसंगति के ‘ हुलिया’ के पर्दाफ़ाश में सभी किरदार लाइन हाज़िर होते दिखाई देते हैं।संयुक्त परिवार की तेज़ी से बदलती ‘चाल ‘ अपने शिल्प और शैली दोनों में समृद्ध है ।’कैमरे के पीछे से ‘ परिवार को निगलते ग्लैमर की कहानी का सफ़्फ़ाक सच दिख रहा है।कुली का काम रात में लेकर स्टेशन की वाईफ़ाई सुविधा से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का यह हुनर वाक़ई ‘डगर से नभ’ को नापने का सार्थक संदेश बयान कर रहा है।
ऋता शेखर ‘मधु ‘ की मीना का विवाह को सामाजिक बंधन की दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन करना न केवल बदलते समय की आहट है प्रत्युत इसका ‘ असर कहाँ तक’ आगे होना है यह प्रश्न पाठक को दबोच लेता है। ‘ सुपर मॉम’ भारतीय परिवार का सनातन सच हैं।सीधे सपाट शीर्षक वाले छाया दान में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता की घनी छाँह है। ‘परछाईं’ में जीवन और जमाने के आपसी तराने की अनुगूँज है।बढ़ती बेटियों पर समाज की गिद्ध दृष्टि का कुरूप चेहरा उभर कर आता है, ‘ बेटी बड़ी हो गई ‘ में। इसका शीर्षक ‘गिद्ध दृष्टि’ भी हो सकता था।
कमला अग्रवाल की जागरूकता अन्न की बर्बादी पर संवेदनशील दृष्टि फेरती है।पर्यावरण पर उनकी ‘हताशा’ वाजिब है।उनका ‘आत्म-साक्षात्कार’ जीवन की क्षणभंगुरता से व्युत्पन्न सर्वजन सुखाय हेतु आत्मोत्सर्ग का भाव उद्भूत करता है।’काल चक्र’ में इंसान की करनी के साथ वक़्त का इंसाफ़ है।छलावा से ‘ छत्तीस का आँकड़ा’ रखने वाली निश्छला की बातों में मानव जीवन में शुचिता का शंखनाद है।
गरिमा सक्सेना का ‘जानवर’ मानवीय मूल्यों के पतन पर तीखा व्यंग्य करता है। एकल बुजुर्ग के एकाकी जीवन की मर्मांतक पीड़ा को वह ‘कंधा’ देती हैं।’मौसमविद’ हसरतों के पर लगाये निरंतर आसमान को निहारने वाली एक सुयोग्य नारी के पैरों के परिस्तिथियों के दलदल में धँस जाने की त्रासदी है। प्रेम के बाज़ारूपन का खुलासा ‘ स्टेटस’ में होता है।’आत्मा और शरीर’ कलियुगी इश्क़ के रूह को तलाशती दास्तान है।’यथा विहाय जीर्णानि’ इसका सही शीर्षक हो सकता था।
गार्गी राय के ‘ऐब’ में वोटों के ख़रीद-फ़रोख़्त को बड़ी मासूमियत से परोसा गया है। उनका ‘सुर’ समाज में व्याप्त वर्ण भेद को साधता है।’काल-कोठरी’ में पौरुष अत्याचार से आहत और जिजीविषा को ढूँढती एक उदीयमान सशक्त नेत्री के आंतरिक शौर्य का स्वर उभरता है।निधि की जगह सुरेखा का नाम टंकण अशुद्धि है, सुरेखा के प्रत्युत्तर में! ‘श्राद्ध का उत्सव’ शोक की घड़ी में भी आडंबर और फ़ैशनों के नवाचार की कुत्सित वृत्ति का पर्दाफ़ाश है, मानो यह कोई उत्सव हो! यहाँ तीन पीढ़ियाँ एक साथ उपस्थित होती हैं । सबसे नीचे वाली पीढ़ी को दूषित करने का सूत्रधार बीचवाली पीढ़ी ही दिखायी देती है।और यही आज का सच है जिसे चित्रित करने में यह लघुकथा बाक़ी मार ले जाती है।फ़ास्ट फ़ूड के बढ़ते बाज़ार में किताबों के ‘ख़रीदार’ अब खो गए हैं। जातिभेद के पुरातन विकृत कुसंस्कारों से नयी पीढ़ी की बेटी का विद्रोह माँ को ‘पर्व का मर्म’ समझा जाता है। माँ का हृदय परिवर्तन पाठक मन में भी लघुकथा के सार्थक संदेश को भलीभाँति रोप देता है।
नलिनी श्रीवास्तव ‘नील’ का ‘सपूत’ बढ़िया से समझा देता है कि ‘पूत सपूत तो का धन संचय! ‘अनुभूति’ में प्रेम की मर्मांतक पीड़ा की गहरी टीस है।बाल-बच्चों की उपेक्षा के दंश का त्रास आज के ‘विपन्न’ समाज का सच हो गया है।’भेदभाव’ में किन्नरों के प्रति संवेदनहीनता और दुराग्रह का भंडाफोड़ है।’कपटी’ में समाज में निरंतर सर उठाते कपट और छल-प्रपंच का उद्भेदन है।
नीरजा कृष्ण की ‘भूल’ दो समांतर घटनाओं में दो सगी बहनों के प्रेम और विवाह संबंधों की विद्रूपता की चीत्कार है।सरनेम में आज की नारी ने सशक्तिकरण की ‘मेरी पहचान’ ढूढ़ ली है। ‘बस, बहुत हुआ’ में मातृत्व की विराट महिमा ने सौतेलेपन को ढक लिया है। ‘बरकत’ ने पाठक को बता दिया है कि ‘रोपे पेड़ बाबुल का, आम कहाँ से होय!’ एक संवेदनशील बहू के द्वारा श्वसुर की भावनाओं का ख़्याल रखने का ‘देशी स्वाद’ अत्यंत लजीज़ और लाजवाब है।
डाo पूनम देवा की ‘मुक्ति’ स्त्री-पुरुष संबंधों पर समाज की कुदृष्टि और नियत में खोट की अभिव्यक्ति हैं।’सर्पदंश’ छूआछूत के दुर्भाव पर इंसानियत की फ़तह की दास्तान है। ‘थैंक यू पापा’ में समष्टिगत कल्याण भाव के सामने व्यष्टिगत स्वार्थ घुटने टेकते नज़र आता है। पति की आत्मा ‘सचेत’ कर रही है कि सत्कर्म ही सच्चा श्राद्ध तर्पण है, कर्मकांड नहीं।’रहमतुल्लाह’ की इबारत सफ़्फ़ाकसाफ़ है कि इंसानियत की ख़िदमत ही ख़ुदा की सबसे बड़ी इबादत है।
प्रवीण कुमार श्रीवास्तव जी का ‘क़द’ दो टूक बता देता है कि पति-पत्नी का आपसी मामला बताकर पत्नी को प्रताड़ित होते देना न केवल विवाह की संस्था का अपमान है, प्रत्युत यह एक विकृत और बीमार सोच भी है।’अपच’ डिजिटल कुसंस्कार के साये में बर्बाद होते बचपन की शोक गाथा है। ‘अमावस का सितारा’ इस बात को रेखांकित करता है कि प्रतिभा अभिजात्यता की मुहताज नहीं।निरंतर लांछन से लाञ्छित प्राणी के मनोविज्ञान का चित्र है ‘अभिशाप’! मानसिक प्रताड़ना शारीरिक क्षय में व्यक्त होती है। पाठकीय पैमाने के हर बिंदु पर यह एक अत्यंत सशक्त लघुकथा है।’अदल’ क़ानून की जटिलता और इसके खिलाड़ियों की कपटपूर्ण प्रतिभा का आख्यान है।
ललन सिंह ने ‘मौक़े’ में राजनीतिक हिसाब-किताब के छल, कपट और बेईमानी को परोसा है। ‘अंतिम दिया’ का यही संदेश है कि आशा और उत्साह को ज़िंदा रखना ही जीना है। ‘सुरा-सार’ शराबबंदी के अंदर के खेल का सार है।’कुछ भी’ इस सच को सामने रखता है कि आज की प्रपंची राजनीतिक व्यवस्था में ग़रीब की आवाज़ नक़्क़ारखाने में तूती के समान है। ‘निहितार्थ’ में सच्चे पुरुषार्थ की उदात्त और गौरवपूर्ण परिभाषा निहित है।यह लघुकथा सशक्त बिंबों की ओट में पाठक को प्रभावित कर जाती है।
श्री मनोज की ‘विदाई’ में सामाजिक व्यवस्था का विद्रूप चेहरा है। मानवता की सेवा ही ईश्वर की उपासना है, यह बात ‘जन्नत या दोज़ख़’ में गूंजती है।’शिक्षा’ संस्कार के मर्म का अनुसंधान है।’विरासत’ दो पीढ़ियों के अपने-अपने सच की रामकहानी है।यह पुरानी पीढ़ी को नयी पीढ़ी के मुँह से विरासत और जीवन मूल्य के यथार्थ को समझाती है।कथानक के स्तर पर ‘रिवाज’ कमजोर ठहरता है जो सड़क के गड्ढों से ध्यान भटकाकर रिवाज के मखौल में उलझ जाता है।
मिन्नी मिश्रा की ‘माँ’ भी कथानक के स्तर पर निर्बल है। पाठक का मन कहानी की नब्ज शुरू में ही पकड़ लेता है । पाठक गंगा के उत्तर को भी पहले से ही ताड़ लेता है। यहाँ अचानक कूदकर सच से पर्दा हटाने वाली कोई बात नहीं है। ‘मौत की मुस्कान’ आज के समकालीन यथार्थ पर बनी एक सशक्त लघुकथा है जो पाठक के मन को सिर्फ़ छूती ही नहीं, वरन् बहुत कुछ सोचने को बाध्य कर देती है। ‘आत्मरक्षा’ अपने अंदर एक वृहत संदेश को आत्मसात् किए हुए है। इसका कथानक अत्यंत सार्थक और सशक्त है जो प्रकारांतर में भारतीय समाज की आधी दुनिया को पूरी बात सिखा जाता है।’जज्बे को सलाम’ में न केवल कलुआ में उसकी नानी के द्वारा आरोपित महान मूल्यों का प्रकटीकरण है, प्रत्युत उन मूल्यों के आलोक में मालकिन के हृदय परिवर्तन का उद्घाटन भी है।’परकटा’ सांस्कृतिक विलंबना (cultural lag) को परिभाषित करती है।यह बच्चों के बालपन को प्रदूषित करने में माता-पिता की सक्रिय भागीदारी की भी पोल खोलती है।
डाo मीना कुमारी परिहार की ‘लाचारी’ एक माँ की मजबूरी को पढ़नेवाले बेटे के सफल संघर्ष की गाथा है जिसमें बाल मनोविज्ञान को भलीभाँति उकेरा गया है। ‘प्रीत की डोर’ में बंधा पुत्र माँ के अंध प्यार में बिगड़ जाता है। ‘आत्मग्लानि’ में तथाकथित बड़े परिवारों की सामंती सोच में सिसकते श्रमिकों की वेदना और पीड़ा है।छोटे बच्चे की बोली में एक ओर तो मजबूर स्त्री की विवशता अनावृत होती है, दूसरी और इसमें आज के बालकों की परवरिश और कुसंस्कार पर ‘जूते पड़ना’ भी है। सच्चाई की जीत का सरल कथ्य है, ‘कलंकित करना’।
ग़रीबी, स्पर्धा, छल-कपट, बिलखता बचपन, और रेल की तरह सरपट भागती दिनचर्या मृदुल जी की ‘पॉलिश में चकाचक दिख रही है। मुकेश कुमार मृदुल जी का ‘स्वभाव’ यह साफ़-साफ़ परिलक्षित कर देता है कि माँ के अंदर का पिता किंचित् माँ से ऊपर नहीं उठ सकता। आख़िर मातृत्व को प्रसव पीड़ा की अग्नि परीक्षा से गुजरना जो होता है। ‘इंटरनेट’ पर सोशल मीडिया और डिजिटल दुनिया की अतिशयता की बलि वेदी पर आहूत होती पारिवारिक शांति और मानसिक चैन का वीभत्स सच है। पाठक अजीब उधेड़बुन में है कि ‘बदमाश औरत’ है कौन। नर्स या कलेसर! या फिर सोशल मीडिया पर वायरल यह किसी रील की पटकथा है! गांवों की कानाफूसी का रोचक चित्र खींचती है ‘ख़राब औरत’!
रंजना जायसवाल की ‘चिट्ठी’ में एक परित्यक्ता पुत्री और प्रताड़िता पत्नी की अप्रेषित वेदना है जिसका प्रारब्ध मात्र सिसकना है। सन्नोदेवी की ‘नर्क’ में होने की आत्मस्वीकृति पाठक को लघुकथा का संदेश बड़े सशक्त भावों में पहुँचा देती है। बस यह कथा अपनी सोद्देश्यता में तब चूक जाती है, जब वह गुड़िया को इस नर्क से निकालने की कोई पहल नहीं करती। फिर तो, वह आत्मस्वीकृति एक फ़िल्मी डायलॉग मात्र बनकर रह जाती है।पुरुष सत्ता के दंभ का ‘डर’ एक रचनाशील नारी की आकांक्षाओं का दम घोंट देता है। ‘औरतों का मान नहीं होता’, यह पंक्ति ‘मान’ की मर्यादा को रेखांकित कर देती है। ‘नील निशान’ पुरुष चरित्र का वह काला धब्बा है जो नारीत्व को खंडित करने का कुत्सित प्रयास करता है।
रमेश प्रसून का ‘ज्ञानोदय’ अमीर और गरीब के मध्य की असमानता से वायरस तक को संवेदना से संक्रमित कर देता है। ‘कालासच’ वेश्यावृति की समस्या की बारीक पड़ताल है। लिंग परीक्षण, कन्या शिशु भ्रूण हत्या, ट्रांसज़ेंडर के प्रति समाज का रुख़ एक साथ कई पहलू ‘नयी भोर’ में दिखायी देते हैं। “ ‘दोहरा’ मार” में समलैंगिकता की वृत्ति की समाज के शिक्षित वर्ग को ‘दुहरी मार’ है। गाँव की लड़कियों को बिगाड़ने का मोबाइल फ़ोन का ‘अकाट्य दांव’ आज के डिजिटल युग का सच है।
राजेंद्र पुरोहित जी की लघुकथा उनके ‘लेख्य-मंजूषा’ परिवार के संस्कारों से अछूती नहीं प्रतीत होती। भय बिन प्रीति न होई, को वह बड़े सर्जनात्मक कलेवर देते हैं - भय, बिन प्रीति न होई । अर्थात् प्रीति के बिना भय नहीं होता और यही प्रीति निष्पन्न भय लेख्य मंजूषा परिवार को बांधे रहता है। एक जिज्ञासु शिष्य और ज्ञान प्रसार को समर्पित गुरु के संवाद में ‘जीवनोदक’ भविष्य की आशा है। ‘सौदागर’ बाजारू संस्कृति में सँवरते समाज का सच है। सुंदर शिल्प वितान पर रोचक शैली में बुना अत्यंत सशक्त कथानक की यह लघुकथा सम्यक् सार्थक है। अर्वाचीन यथार्थ परक दुनिया में आदर्शों का वितान तानती इस लघुकथा में प्रेमचंद मानो अपना आदर्श तलाशते नज़र आ रहे हैं। ‘आडंबर’ एक ऐसे चरित्र को खोलता है जो ‘आँख का अंधा नाम नयनसुख’ है।
राजेंद्र वर्मा जी का ‘फ़ैसला’ नेकनियति और सदाचरण के अँजोर में संदेह की धुँध मिटा देता है।बचपन में ही सर से माँ की ममता की छाँह से वंचित लिली का वृद्धाश्रम की वृद्धा को बुढ़ापे का ‘बेटा’ देना पाठकों को संवेदना के एक अलग लोक में ले जाता है। यह ‘बेटा’ समाज को करुणा और सेवा भाव का सामाजिक पाठ पढ़ा जाता है और यही इस लघु कथा का प्राण है। स्त्री ही स्त्री का दुश्मन होती है। बड़ी चाहत से जन्मे बेटे से परित्यक्ता माँ का अनचाहे जन्मी ‘बेटी’ द्वारा हाथ थाम लेना न केवल समाज की रूढ़िवादी सोच पर गहरी चोट है, वरन् यह बदलते वक़्त में बेटियों की बढ़ती महिमा को भी प्रतिष्ठित करता है। ‘प्रतीक्षा’ व्यावसायिक दुनिया की उपभोक्तावादी चकाचौंध में इंसानियत की चौंधियाती आँखों और जज़्बातों की दुखद दास्तान है। ‘देवता’ सामाजिक दुर्नीतियों को ललकारता है। ‘उलझन’ में अनकही बात कही बात से अधिक असर छोड़ जाती है। ‘दान’ बेटी को वस्तु समझने की कुत्सित सामाजिक सोच पर तीखा व्यंग्य है। ‘दुआ’ में किन्नरों के विषय में व्याप्त सामाजिक भ्रांति का खंडन है।अपनी गलती के अहसास और उस पर पछतावे की अभिव्यक्ति ‘उफ़’ में होती है।तथाकथित आधुनिक पत्नियों के प्रेम समर्पण भाव की विरूपता ‘साम्राज्यवाद’ में उभरता है।
विभा रानी श्रीवास्तव के ‘मुबश्शिरा’ में विकलांग वेदना भाव में ज़ोमेटो के विश्वासघात की वेदना खो जाती है। ‘दूर्वह’ बेटियों के महत्व को उभारती और समाज को सचेत करती एक सशक्त लघुकथा है। ‘प्रघटना’ पाठकों को सोचने के लिए एक साथ कई पक्षों को छोड़ जाती है।कोरोना के करील काल में स्वार्थ का फैलता वर्तुल, पुत्र के सहयोग से वंचित पिता की बेबसी और इन सबको अपने पाश में जकड़ते डिजिटल अन्तर्जाल का व्यावहारिक सत्य ‘प्रघटना’ में एक साथ घटित होता है।सीता, राम और लक्ष्मण के प्रतीक अर्थों में देवर भाभी का संवाद अबला जीवन के कारुणिक त्रासदी के आख्यान का ‘पुनर्योग’ है। ‘नेति-नेति’ में नित्य काम करनेवाली सहायिकाओं की नियति और अर्वाचीन समाज की अनैतिक सोच का अनावरण है।
डाo शैलेश गुप्त ‘वीर’ के ‘छंगू भाई’ को लगा थप्पड़ इस जड़ समाज में चेतना का अरुण केतन थामे रिक्शेवाले के सामाजिक क्रांति का शंखनाद है। यथार्थ की चौखट पर आदर्श को साष्टांग लिटवाते इस कथानक में सही मायने में एक ‘बोल्ड’ लघुकथा है। ‘जिसकी लाठी उसी की भैंस’ इस समाज में एक आदमी की ‘हैसियत’ तय करती है। भ्रष्टाचार के दलदल में ‘बेरोज़गारी’ आकंठ फँसी हुई है। ‘खिलवाड़’ तथाकथित बुद्धिवीरों के बौद्धिक दोगलापन और वैचारिक प्रपंच की पोल खोलता है।
संगीता गोविल के ‘उफान ‘ में बेटी की सोयी शक्ति को जगाने के क्रम में माँ की खोई शक्ति के जाग जाने का सच है। फैलती प्राद्योगिकी के सिकुड़ते संसार में चिट्ठियाँ खो गई हैं। उन्हीं चिट्ठियों में ‘सच का दामन ‘ थामती संगीता जी विकलांग व्यक्ति के व्यक्तित्व के कारुणिक दिव्यांग का दर्शन कराती हैं। आधुनिक जीवन प्रणाली में बेटे- बेटियों के पढ़ लिखकर घर-दुआर छोड़ जाने की पीड़ा में ‘लमहों की गति’ थम-सी गई हैं। ‘जालसाज़’ का शीर्षक ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ भी हो सकता है।’विचाराधीन’ में परंपरा और आधुनिकता का संघर्ष विचाराधीन है।
सुदर्शन शर्मा ‘सुधि’ की ‘चौखट पर पौरुष दंभ से दंशित नारी अपनी स्वतंत्र अस्मिता तलाश लेती है। ‘जन्मदिन’ दुख और सुख के भावों में सामंजस्य स्थापित करता है। ऐसे यह लघुकथा “ लेकिन बेटा ….. लोग…..?” पर ही थम सकती थी। ‘हमसफ़र’ युवक का उत्तरदायित्व बोध और उसकी कुशाग्र बुद्धि अकेली सफ़र करती नारी को भयाक्रान्त करने वाले मनचलों को न केवल छकाती है,बल्कि पाठकों को भी अचंभित कर देती है।लघुकथा का शिल्प सौंदर्य श्लाघ्य है।सपनों और हक़ीक़त के बीच के फासलों को ‘सपनों का घर’ साधता है। ‘देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर’ की उक्ति को ‘कर्ज़’ चरितार्थ करता है। संकलन की संभवत: इस सर्वश्रेष्ठ लघुकथा के हरेक हर्फ़ में लघुकथा के समस्त वांछित तत्व अपने सम्यक् स्वरूप को फिट करने की होड़ में लगे नज़र आते हैं।
डाo सुरेश वशिष्ठ के ‘टन माल’ में लघुकथा के कथ्य से कथानक भी भागती लड़की की तरह पाठक की आँखों से ओझल हो जाता है। अंत में पाठक बेचारा ‘टन माल’ को दबोचे अबूझ- सा खड़ा रह जाता है।’कौन तेरा बाप?’ हैवानियत की मार्मिक गाथा है। इसका शीर्षक “‘दयालु’ दंगाई” भी हो सकता था। ‘वस्त्र’ आडंबर को पटकनी देती सरलता की कथा है।’मंथन’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें पुरुष की वासनात्मक मनोविकृति का मंथन हुआ है।’जात’ में जातिवादिता के पाश्विक उन्माद का चित्रण है।
भाऊ राव महंत की ‘मानसिक पीड़ा’ में ‘पूत कपूत हो सकता है’ की पुष्टि होती है।इसका शीर्षक ‘दूध की पीड़ा’ भी हो सकता था। ‘सबसे सुंदर’ वही है जिसकी आत्मा सुंदर हो और जिसका आंतरिक सौंदर्य उसके विचारों में परिलक्षित होता हो। ‘अपना- पराया’ का भेदभाव मनसा- कर्मणा दोगलापन की निशानी है।’दोगले नसीहत’ पाठक को समाज के सच की सार्थक नसीहत दे जाता है। पत्नी की चुप्पी वाक़ई धूर्त पति की ‘क़ाबिलियत पर शक’ को उसके छली अतीत की दुखद यादों को मुखर कर देती है।
संग्रह का संपादन सुगठित है।कहीं कहीं व्याकरण और टंकण की अशुद्धि खटकती है। संग्रह की भूमिका में आज की साहित्यिक संस्कृति की संक्षिप्त किंतु अत्यंत सार्थक चर्चा है। यह संग्रह लघुकथा की विकास यात्रा में अपने समकालीन स्वरूप का न केवल आईना साबित होगी, प्रत्युत मील का एक महत्वपूर्ण पत्थर भी गाड़ेगी और अपनी गुणवत्ता के दम पर छद्मयुग की इस भ्रांति को तार- तार कर देगी कि ‘ जिसका जितना बड़ा गिरोह,……. वह उतनी बड़ी हस्ती!
अस्तु!
विश्वमोहन
८८७७९३८९९९
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